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छत्रपति शाहू जी महाराज जी के जीवन पर विशेष लेख ( 26 जून 1874 - 6 मई 1922 ) जरुर पढ़े और share भी करे

छत्रपति शाहू जी महाराज जी के जीवन पर विशेष लेख ( 26 जून 1874 - 6 मई 1922 )


छत्रपति शाहूजी महाराज जी अपनी शिक्षा पूरी कर चुके थे और वह कोल्हापुर राज्य के कार्यों में रूचि लेने लगे थे | राज्य की शिक्षा व्यवस्था की ओर भी छत्रपति शाहूजी महाराज का ध्यान जानें लगा था | 
l3 अप्रैल 1893 को राजाराम कॉलेज की ओर से उन्होंने पुरस्कार वितरण हेतु आमंत्रित किया गया|
2 अप्रैल 1894 का वह दिन था जब छत्रपति शाहूजी महाराज को एक नरेश के रूप में सिंघासन पर बैठना था | मुंबई के गर्वनर लार्ड हैरिस ने इसके लिए एक विशेष दरबार की व्यवस्था की | इस दरबार में राजे-महराजे, प्रमुख सरदार, अधिकारी, कोल्हापुर के शासनाधिकारी तथा महत्वपूर्ण व्यक्ति उपस्थित थे | एक लम्बी अवधि के पश्चात कोल्हापुर राज्य को शाहूजी महाराज के रूप में एक धीर-वीर नरेश प्राप्त हुआ था|

समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार

छत्रपति शाहूजी महाराज जी जिस समय गद्दी पर बैठे, उस समाज समाज के दशा कई दृष्टियों से सोचनीय थी| जाति-पात, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, मानवाधिकारों की असमानता, निर्धन कृषकों और मजदूरों की दीन-हीन स्थिति, पाखंडवाद भरी धर्म पद्धति, वर्ण-व्यवस्था को घोर तांडव असहाय जनता को उबरने नहीं दे रहा था |वर्ण-व्यवस्था में चौथा वर्ण जो आता है यानि कि शूद्र जिसका कोई अपना अस्तित्व नहीं था, उसकी दशा दायनीय थी | उस समय वर्ण-व्यवस्था और ऊँच-नीच के भेदभाव को मिटाने के लिए "सत्य शोधक समाज" लगातार कार्य कर रहा था जिसकी स्थापना महात्मा ज्योतिबाफुले जी ने की थी|
महाराष्ट्र में उस समय ब्राह्मणों की संख्या 5 प्रतिशत थी लेकिन फिर भी वे ब्रिटिश शासन में हर स्थान पर नियुक्त थे| राजनीति, सरकारी नौकरियां, धर्मदण्ड सभी कुछ उनके हाथ में था | ऐसी विषम स्थिति में अबोध और गरीब जनता का जीवन नारकीय हो गया था | ब्राह्मण शिक्षा पर अपना एकाधिकार बनाये हुए थे वे गैर-ब्राह्मणों को शिक्षा पाने पर प्रतिबन्ध लगाये हुए थे | वेदों का अध्ययन ब्राह्मणों के अतिरिक्त कोई जाति नहीं कर सकती थी|

मानवीय संवेदनशीलता से सम्पन्न

छत्रपति शाहूजी महाराज जी को महात्मा ज्योतिबाफुले जी के संघर्षों से प्रेरणा मिल रही थी और उनके पथ पर चलने को आतुर थे | इस दिशा में छत्रपति शाहूजी जी महाराज को सावधानी और बुद्धिमानी से काम लेना था | इसके लिए सबसे पहले आवश्यकता थी कि जनमत तैयार किया जाए तथा जनता में भाव उदय किया जाय कि वह स्वयं नाना प्रकार की कुरीतियों एवं बुराइयों को दूर करने के लिए सक्रिय और सचेत हो जाए |
वह समय आ गया जब छत्रपति शाहूजी जी महाराज ने अपना शासन दृढ़तापूर्वक प्रारम्भ कर दिया | वे आस-पास के गाँव में जाते, सभी किसानों और मजदूरों से खुलकर मिलते और उनकी समस्याओं को सुनते और उनकी समस्या का निदान करते | कभी-कभी अपना राजकीय भोज गरीबों के सड़े-गले खाने में बदल देते | डॉक्टरों के मना करने पर भी वे गरीबों का बासी, कच्चा और रखा हुआ भोजन खा लेते थे | वे राजा होकर भी मानवीय संवेदनशीलता से सम्पन्न थे|

अटल विचारधारा

छत्रपति शाहूजी महाराज जी की धारणा थी कि शासन में सभी वर्गों व जातियों के लोगों की साझेदारी शासन को संतुलित और चुस्त बनाएगी | किसी एक जाति के लोगों का शासन प्रजा की वास्तविक भावना और आकांक्षा का प्रतिनिधित्व नहीं करता | उन्होंने ऐसा ही किया | सर्वप्रथम उन्होंने अपने दरबार से ब्राह्मणों को वर्चस्व कम किया और सभी वर्गों की भागीदारी निश्चित की | निर्बल वर्गों के लोगों को उन्होंने नौकरियों पर ही नहीं रखा बल्कि वे उनकों साथ लेकर चलने भी लगे | इससे ब्राह्मणों में रोष उत्पन्न हो गया और वो लोगों में भ्रम फैलाने लगे कि छत्रपति शाहूजी महाराज अनुभवहीन है तथा वे अक्षम लोगों को सरकारी पदों पर नियुक्त कर रहे है | छत्रपति शाहूजी महाराज जी अपनी विचारधारा पर अटल थे और उन पर ब्राह्मणों के इस रवैये का कोई फर्क नहीं पड़ा|

 सामाजिक न्याय

छत्रपति शाहूजी महाराज जी ने अनुभव किया कि अछूत वर्ग तथा पिछड़े वर्ग के लोग प्रायः अशिक्षित और निर्धन है | वे आर्थिक दरिद्रता और सामाजिक अपमान को एक लम्बी परम्परा से भोग रहे है | छत्रपति शाहूजी जी महाराज जी की इच्छा थी कि शिक्षा का प्रसार छोटी जातियों एवं वर्गों के बीच किया जाए जिससे उनकों अपने अधिकारों का सही ज्ञान हो सके | उन्होंने स्वयं की देख-रेख में स्कूलों की स्थापना करवाई और शिक्षा के द्वार सभी के लिए खोल दिए|
नैतिक और भौतिक विकास से छत्रपति शाहूजी महाराज जी का एक ही प्रयोजन और एक ही मतलब था और वह था निर्बल दलितों तथा शोषितों की शिक्षा, स्वास्थ्य तथा कृषि सम्बन्धी विकास | उनकी प्रबल आकांक्षा थी कि उस तथाकथित शूद्र और अतिशूद्र जातियों को शासन व्यवसाय तथा स्थानीय निकाय में अधिक से अधिक हिस्सा मिले | जिसके लिए जरुरी था कि पहले उनको शिक्षित किया जाए|

आरक्षण व्यवस्था की प्रेरणा

बाबा साहेब डा० भीमराव अम्बेडकर जी बड़ौदा नरेश छात्रवृति पर पढ़ने के लिए विदेश गए लेकिन छात्रवृति बीच में ही ख़त्म हो जाने के कारण उन्होंने वापस भारत आना पड़ा | महाराजाधिराज को बालक भीमराव के बारे में जैसे ही पता चला तो वे खुद बालक भीमराव का पता लगाकर मुम्बई की सीमेंट परेल चाल में उनसे मिलने गए, ताकि उन्हें किसी सहायता की आवश्यकता हो तो दी जा सके। छत्रपति महाराज जी ने बाबा साहेब को विदेश में आगे की पढाई जारी रखने के लिए सारा खर्च खुद उठाया | साहू महाराज ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर के 'मूकनायक' समाचार पत्र के प्रकाशन में भी सहायता की। महाराजा के राज्य में कोल्हापुर के अन्दर ही दलित-पिछड़ी जातियों के दर्जनों समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं। सदियों से जिन लोगों को अपनी बात कहने का हक नहीं था, महाराजा के शासन-प्रशासन ने उन्हें बोलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी थी। | छत्रपति शाहू जी महाराज जी के साम्राज्य में निर्बल दलितों तथा शोषितों की समुचित शिक्षा, स्वास्थ्य तथा कृषि सम्बन्धी विकास के साथ सामाजिक न्याय द्वारा स्थापित आरक्षण व्यवस्था देखकर डा० अम्बेडकर जी बहुत ही प्रभावित हुये और यही से बाबा साहब को आरक्षण व्यवस्था की प्रेरणा मिली | 
कोल्हापुर राज्य के लिए यह अत्यंत दुखद पल ही था कि छत्रपति शाहूजी महाराज जी निरंतर स्वास्थ्य ख़राब होने के कारण मात्र 48 वर्ष की आयु में 6 मई 1922 को लगभग 6 बजे वह इस संसार को विदा कह दिया, इस संसार को छोड़ने से पहले उन्होंने अपने पास मौजूद लोगों से बिस्तर से उठकर बात की और कहा,"अब मैं प्रस्थान के लिए प्रस्तुत हूँ | मेरे मन में लेश मात्र भय नहीं है - आप सब लोग को अंतिम अभिवादन" | सभी की आँखों से आंसू की धारा बह निकली | छत्रपति शाहूजी महाराज जी का नाम इतिहास के पन्नों में अमर हो चूका था|
इंसान दो प्रकार के होते है एक तो वे जो अपने परिवार के भरण-पोषण तक ही सीमित रहते है दूसरे वे जो अपने परिवार के साथ-साथ दूसरे परिवार को भरण-पोषण करने में अपना जीवन व्यतीत कर देते है | अपना जीवन संकट में डाल कर दीन-दुखियों की मदद करते है, खुद हानि सहकर दूसरों को लाभ पहुंचाते है | ऐसे ही लोग दुनिया में अमर हो जाते है और हमेशा याद किये जाते है|
 
Kurmivanshi Harsh Verma

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